गीत
मैं तुम्हारे गाँव आ तो जाता मगर -
हर तरफ ही काली घटा घिर रही है |
शोर है अब शीघ्र अदभुत भोर होगी ,
तम ज़रा सा भी न धरती पर बचेगा |
हर तरफ सुख की विमल गंगा बहेगी ,
पर्व जैसा द्रश्य पग पग पर दिखेगा |
मैं हर कथन को मान लेता सच मगर -
न तो भ्रमित है चेतना न डर रही है |
सच जिसे सब देव-गुण कहते थे कभी -
झूठ के प्रश्रय में बेबस जी रहा है |
आदमी सब भूल कर आदर्श अपने ,
ईर्ष्या औ द्वेष का विष पी रहा है |
मैं समय के अनुरूप ढल तो जाता मगर ,
( मैं समय के संग बदल तो जाता मगर ),
पूर्वजों की सीख अड़चन कर रही है |
कितने जनम बाद मानव तन मिला है ,
क्या इसे मैं यूँ ही तार तार कर दूँ |
आंसुओं से हर घड़ी जिसको संवारा ,
ये तन का दुशाला दागदार कर दूँ |
मैं स्वार्थी जीवन बिता तो लेता मगर -
हर सांस में इंसानियत भर रही है |
आलोक सिन्हा
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