गीत
मैं नीरव रह पाऊँ कैसे , प्राण !
दूर तुम , ह्रदय पास है |
इसको ले जाते अपने
संग ,
जैसे बनता मैं रह
लेती |
यह तो छुई मुई सा
कोमल ,
मैं पाषाणी सब सह लेती
||
इसकी आकुलता से व्याकुल रहता
प्रतिपल श्वास श्वास है |
मुझको तो भाने लग
जाती ,
नयनों की अविरल
बरसातें |
मुझको तो रुचिकर हो
जाती ,
कजरारी अंधियारी
रातें ||
यह पागल नयनों से कहता , कहाँ
बता दो चंद्रहास है |
प्राण तुम्हारी
निर्ममता को ,
मैं वरदान समझने लगती
|
दग्ध विकल निश्वासों
को में ,
मधुमय गान समझने लगती
||
पर इसकी बिछलन तड़पन से जीवन का कण
कण उदास है |
रचना
--- कुसुम सिन्हा