गीत
मैं नीरव रह पाऊँ कैसे , प्राण !
दूर तुम , ह्रदय पास है |
इसको ले जाते अपने
संग ,
जैसे बनता मैं रह
लेती |
यह तो छुई मुई सा
कोमल ,
मैं पाषाणी सब सह लेती
||
इसकी आकुलता से व्याकुल रहता
प्रतिपल श्वास श्वास है |
मुझको तो भाने लग
जाती ,
नयनों की अविरल
बरसातें |
मुझको तो रुचिकर हो
जाती ,
कजरारी अंधियारी
रातें ||
यह पागल नयनों से कहता , कहाँ
बता दो चंद्रहास है |
प्राण तुम्हारी
निर्ममता को ,
मैं वरदान समझने लगती
|
दग्ध विकल निश्वासों
को में ,
मधुमय गान समझने लगती
||
पर इसकी बिछलन तड़पन से जीवन का कण
कण उदास है |
रचना
--- कुसुम सिन्हा
कविता की हर पंक्ति सुंदरता से भरी हुई है ..बार बार पढ़ने का मन करता है..मन मोहती सुंदर कृति..
जवाब देंहटाएंजिज्ञासा जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंकमाल का गीत...साधुवाद कुसुम सिन्हा जी की लेखनी को...
सादर नमन एवं आभार सुन्दर गीत साझा करने हेतु।
सुधा जी ! बहुत बहुत धन्यवाद आभार
जवाब देंहटाएंभावनाओं का सुन्दर प्रवाह ...
जवाब देंहटाएंलयात्मक गीत ...
नासवा जी बहुत बहुत आभार
हटाएंवाह , बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंशिवम जी बहुत बहुत आभार
जवाब देंहटाएंअत्यंत सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार मीना जी
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आभार
हटाएंआदरणीय कुसुम दीदी की रचनाएँ नारी मन की वेदना की सशक्त अभिव्यक्ति हैं। महादेवी वर्मा की रचनाओं याद दिलाती हैं। हार्दिक आभार और प्रणाम 🙏🙏
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही मूल्यांकन किया आपने |माननीय माखन लाल चतुर्वेदी जी ने भी उनसे यही बात कही थी कि तुम्हारी रचनाओं में महादेवी की झलक दिखाई देती है |
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